पैग़म्बरे इस्लाम और इमाम हसन की शहादत पर विशेष

पैग़म्बरे इस्लाम (स) का स्वर्गवास हुए चौदह सौ वर्ष का समय बीत रहा है परंतु आज भी दिल उनकी याद व श्रृद्धा में डूबे हुए हैं। डेढ अरब से अधिक मुसलमान प्रतिदिन अपनी नमाज़ों में पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी की गवाही देते हैं, उन पर दुरूद व सलाम भेजते हैं और उ

पैग़म्बरे इस्लाम (स) का स्वर्गवास हुए चौदह सौ वर्ष का समय बीत रहा है परंतु आज भी दिल उनकी याद व श्रृद्धा में डूबे हुए हैं। डेढ अरब से अधिक मुसलमान प्रतिदिन अपनी नमाज़ों में पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी की गवाही देते हैं, उन पर दुरूद व सलाम भेजते हैं और उनके द्वारा लाए हुए ईश्वरीय धर्म इस्लाम का अनुसरण करते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम के निमंत्रण का आधार ईश्वरीय धर्म इस्लाम की शिक्षाएं हैं और इन्हीं शिक्षाओं के आधार पर उन्होंने एसे समाज एवं सरकार की बुनियाद रखी जो समस्त कालों के लिए आदर्श है। आज के कार्यक्रम में हम इस्लामी सरकार एवं इस्लामी समाज की कुछ विशेषताओं की चर्चा करेंगे।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने जिस समाज एवं सरकार की बुनियाद रखी उसका सबसे स्पष्ट आधार एकेश्रववाद, ईमान और आध्यात्म था। कहो ईश्वर एक है मुक्ति पा जाओ यह नारा पैग़म्बरे इस्लाम के जीवन के विभिन्न चरणों में था। यह नारा उनके पावन जीवन का महत्वपूर्ण सिद्धांत था। पैग़म्बरे इस्लाम ने एकेश्वरवाद को आधार बना कर महत्वपूर्ण व्यवस्था की आधारशिला रखी। इस आधार पर महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की उपासना के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना से इंकार किया गया था और बंदगी केवल महान ईश्वर से विशेष है यानी इंसान को केवल महान ईश्वर का बंदा होना चाहिये।

वास्तव में ईश्वरीय दूतों को भेजने का मूल उद्देश्य यह था कि वे मनुष्यों का ध्यान इस ओर दिलायें कि महान ईश्वर के अतिरिक्त किसी उन्य की उपासना नहीं करनी चाहिये। पैग़म्बरे इस्लाम ने जिस एकेश्वरवाद की बुनियाद रखी, प्रेम और ईमान उसके रत्न हैं। यह एसा ईमान है जो इंसान के भीतर उसके दिल में होता है और वह मनुष्य का मार्गदर्शन सही दिशा में करता है।

पैग़म्बरे इस्लाम के काल के समाज की एक विशेषता ज्ञान पर ध्यान दिया जाना है। इस बात का महत्व पवित्र कुरआन की उस आयत से स्पष्ट हो जाता है जिसमें महान ईश्वर कलम व ज्ञान की बात करता है। महान व सर्वसमर्थ ईश्वर ने तक़वा, जेहाद और ईमान के साथ ज्ञान को विशेष महत्व प्रदान किया है। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों में ज्ञान की बहुत प्रशंसा की गयी है यहां तक कि विद्वान के कलम की स्याही को शहीद के खून से बेहतर बताया गया है। ज्ञान ही वह चीज़ है जो संस्कृतियों व सभ्यताओं के विस्तार तथा उनके बाक़ी रहने का कारण बनता है। पैग़म्बरे इस्लाम ने जिस सामाजिक एवं मानवीय सभ्यता का आधार रखा वह न केवल तार्किक एवं बुद्धि के अनुकूल है बल्कि इंसान को सोच- विचार और ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करती है। इस प्रकार के दृष्टिकोण के कारण ही ईश्वरीय धर्म इस्लाम, विभिन्न ज्ञानों में महान विद्वानों का पालना बना।

पैग़म्बरे इस्लाम ने जिस व्यवस्था की बुनियाद रखी उसकी एक विशेषता न्याय था। न्याय संसार की आवश्यकता में से है और महान ईश्वरीय धर्मों व नियमों का आधार न्याय है। समाज में न्याय को व्यवहारिक बनाए बिना मनुष्य वास्तविक सफलता तक नहीं पहुंच सकता और मानव समाज तथा विश्व की राजनीतिक व्यवस्थाएं न्याय के बिना बाक़ी नहीं रह सकतीं। पैग़म्बरे इस्लाम, सरकार की स्थापना का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य न्याय की स्थापना बताते हैं। पवित्र कुरआन में भी न्याय पर बहुत बल दिया गया है और विभिन्न क्षेत्रों में न्याय पर ध्यान दिये जाने पर ज़ोर दिया गया है। पवित्र कुरआन में कहा गया है कि ईश्वर न्याय करने वालों को पसंद करता है। पैग़म्बरे इस्लाम ने समाज में न्याय स्थापित करने के लिए यथासंभव प्रयास किये। पैग़म्बरे इस्लाम के इस्लामी समाज में सभी समान थे। किसी को किसी पर वरियता प्राप्त नहीं थी मगर यह कि उसका तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय अधिक हो।

पैग़म्बरे इस्लाम के काल और उनकी सरकार की एक विशेषता इस्लामी समुदाय के मध्य एकता थी। पैग़म्बरे इस्लाम ने इस्लामी समाज में एकता को व्यवहारिक बनाने के लिए अत्यधिक प्रयास किये। आज इस्लामी एकता से तात्पर्य यह है कि मुसलमान अपने धर्मों की सुरक्षा के साथ धर्म की समान बातों में एकजुट रहें जैसे एकेश्वरवाद, कुर्आन, पैग़म्बर और उनकी परंमरा आदि। साथ ही मुसलमानों को चाहिये कि वे जातीय, धार्मिक, राजनीतिक और भाषायी मतभेदों से दूरी करें। एक चीज़ स्वयं पैग़म्बरे इस्लाम का सदाचरण है जो मुसलमानों को एक दूसरे से निकट करता है और उन्हें मतभेदों से दूर रखता है। पैग़म्बरे इस्लाम का चमत्कारिक व्यवहार इस बात का कारण बनता था कि कभी उनके मुखर विरोधी भी उनके अनुयाइयों की पंक्ति में शामिल हो जाते थे। इस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम का स्नेहिल व उत्कृष्टतम व्यवहार दिलों के मध्य प्रेम एवं एकता का कारण बनता था।

पैग़म्बरे इस्लाम जब पवित्र नगर मक्का से मदीना पलायन करके गये तब उन्होंने विभिन्न गुटों व लोगों को एक दूसरे का भाई बनाया। पैग़म्बरे इस्लाम का यह सदाचरण इस्लामी समाज में एकता उत्पन्न करने का बेहतरीन कार्य था। पैग़म्बरे इस्लाम ने एकता उत्पन्न करने के लिए मोहाजिर एवं अंसार को एक दूसरे का भाई बनाया। मोहाजिर उन मुसलमानों को कहते हैं जो पवित्र मक्के से मदीना गये थे और अंसार उन मुसलमानों को कहते हैं जो मदीना के ही रहने वाले थे।
मुसलमानों को एक दूसरे का दोस्त और सहायक होना चाहिये और अन्याय व अत्याचार के मुकाबले में एकजुट हो जाना चाहिये और अगर मुसलमानों के मध्य किसी बात को लेकर मतभेद उत्पन्न हो जायें तो उनके समाधान का आधार महान ईश्वर एवं पैग़म्बरे इस्लाम को बनाना चाहिये। पैग़म्बरे इस्लाम ने जब मुसलमानों को एक दूसरे का भाई बनाया तो उसमें उन्होंने जाति, रंग और धन किसी भी चीज़ को कोई महत्व नहीं दिया। जिस चीज़ को महत्व दिया वह केवल ईमान था। पैग़म्बरे इस्लाम की सरकार में जाति, रंग, कबीला और काले- गोरे को कोई महत्व प्राप्त नहीं था। इस्लाम ने उन समस्त चीज़ों से संघर्ष व किया जिनके आधार पर एक दूसरे के साथ भेदभाव किया जाता था। इस्लाम में श्रेष्ठता का मापदंड केवल तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय है यानी जिसका ईश्वरीय भय सबसे अधिक होगा वह ईश्वर के निकट उतना ही श्रेष्ठ होगा।

पैग़म्बरे इस्लाम दया व कृपा की प्रतिमूर्ति थे। यहां तक कि महान ईश्वर ने उन्हें विश्व के लिए दया व कृपा का आदर्श बताया है।  जिन लोगों ने वर्षों तक पैग़म्बरे इस्लाम से शत्रुता की थी पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें भी माफ कर दिया। इस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम ने हर प्रकार की हिंसा, अन्याय, भेदभाव और पक्षपात का विरोध किया और सबके साथ समान व्यवहार किया।

पैग़म्बरे इस्लाम इंसानों की आज़ादी को बहुत महत्व देते थे। उनकी जीवन शैली इस बात की सूचक है कि ज़ोर ज़बरदस्ती का उनके जीवन में कोई स्थान नहीं था। आशा है कि विश्व के समस्त मुसलमान पैग़म्बरे इस्लाम के पावन जीवन का अनुसरण करके लोक परलोक में अपने जीवन को सफल बनायेंगे।

आज पैग़म्बरे इस्लाम के जेष्ठ नाती हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की शहादत का भी दुःखद दिन है। इस अवसर पर हम उनके पावन जीवन के कुछ पहलुओं पर भी प्रकाश डालेंगे।

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया है” हसन मेरी सुगन्ध का फूल है। हे ईश्वर मैं हसन को दोस्त रखता हूं तो तू भी उसे दोस्त रख और उसे भी दोस्त रख जो हसन को दोस्त रखे”

इतिहास में है कि जब हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की शहादत का समय निकट आया तो उन्होंने अपने प्राणप्रिय छोटे भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को बुलाया और कहा हे भाई जल्द ही मैं आप से अलग हो जाऊंगा और अपने पालनहार से मुलाक़ात करूंगा मुझे ज़हर दिया गया है मैं जानता हूं कि मुझ पर किसने यह अत्याचार किया है और इस अत्याचार की जड़ कहां है? ईश्वर की बारगाह में इसका मुकाबला करूंगा परंतु उस हक की सौगन्ध जो तुम्हारी गर्दन पर है इसके दोषी से बदला मत लेना इस बारे में ईश्वर के फैसले की प्रतीक्षा करना”

इमाम हसन अलैहिस्सलाम की एक विशेषता यह थी कि वह बहुत धैर्यवान थे। इमाम हसन अलैहिस्सलाम इतना धैर्यवान थे कि उनके धैर्य की चर्चा सबकी ज़बान पर थी। इस संबंध में इतिहास की पुस्तकों में बहुत सारी बातें मिलती भरी पड़ी हैं। उदाहरण स्वरूव मरवान नाम का एक व्यक्ति था जो पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों से बहुत शत्रुता व द्वेष रखता था। वह कहता है कि इमाम हसन अलैहिस्सलाम का धैर्य पहाड़ों के बराबर था”

हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शहीद हो जाने के बाद लोगों ने इमाम हसन अलैहिस्सलाम की बैअत की अर्थात उनके आज्ञापालन के प्रति वचनबद्ध हुए। उसी समय से मोआविया ने अपना मित्थ्यापूर्ण प्रयास  और भी तेज़ कर दिया। उसने दुष्प्रचार कर के न जाने कितने लोगों को दिग्भ्रमित कर दिया यहां तक कि उसने इमाम के कुछ अनुयाइयों को भी घूस देकर गुमराह कर दिया। इमाम ने जब यह देखा कि उनके कुछ अनुयाइयों ने उनके साथ धोखा और बेवफाई की है तो वे मुसलमानों के जान व माल की सुरक्षा में आगे बढ़े और विवश होकर मोआविया से सुलह कर ली। इस प्रकार इमाम हसन अलैहिस्सलाम की सरकार केवल ६ महीने और कुछ दिनों तक ही चली। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने मोआविया के साथ जो संधि की उसके कारण बहुत से मुसलमानों की जान बच गयी और उस समय युद्ध इस्लाम और मुसलमानों के हित में नहीं था। क्योंकि रोम साम्रराज्य को मुसलमानों से करारा आघात पहुंचा था इसलिए वह प्रतिशोध लेने की जुगत में था । ऐसे में अगर युद्ध होता तो इस्लाम और मुसलमानों दोनों को भारी नुकसान पहुंचता। इस प्रकार रोम साम्रराज्य को मुसलमानों से प्रतिशोध लेने और उन्हें आघात पहुंचाने का अच्छा अवसर मिल जाता।

दूसरी ओर इराक के लोगों की मनोदशा, सेना गठित करने और इमाम हसन अलैहिस्सलाम का साथ देने की नहीं थी अतः एसे लोगों के साथ युद्ध में जाने का परिणाम पराजय के अतिरिक्त कुछ और नहीं था। इसी कारण इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने अपने काल के लोगों के अत्याचार, अज्ञानता और दूरदर्शी न होने पर धैर्य किया और वे मोआविया के साथ सुलह करने पर विवश हुए।

इमाम हसन अलैहिस्सलाम अपने काल के मुसलमानों से फरमाते थे” राष्ट्र सुलह करते हैं इस स्थिति में कि वे अपने शासकों के अत्याचारों से भयभीत होते हैं परंतु मैं सुलह कर रहा हूं इस हालत में कि अपने अनुयाइयों से भयभीत हूं। मैंने तुम्हें दुश्मन के विरूद्ध जेहाद के लिए कहा परंतु तुम नहीं उठे मैंने तुम्हें वास्तविकता से अवगत किया परंतु अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि सबा कौम की भांति तुम तितर- बितर हो गये और नसीहत की आड़ में तुमने एक दूसरे को धोखा दिया”
इमाम हसन अलैहिस्सलाम का धैर्य केवल लोगों तक सीमित नहीं था बल्कि उनका धैर्य इस्लाम और इंसानों की भलाई के लिए था। इमाम हसन अलैहिस्सलाम का धैर्य ही था जिसने माओविया के साथ सुलह की और इस्लामी जगत को पहुंचने वाली क्षति से बचाया। इमाम हसन अलैहिस्सलाम के सुलह करने पर कुछ लोगों ने आपत्ति की तो इमाम ने उनके उत्तर में कहा मैंने मुसलमानों की जान की सुरक्षा के लिए सुलह की है अगर एसा न करता तो एक शीया भी ज़मीन पर बाक़ी न बचता। हाय हो तुम पर! क्या तुम नहीं जानते हो कि मैंने क्या किया है ईश्वर की सौगन्द सुलह मेरे अनुयाइयों के लिए हर उस चीज़ से बेहतर है जिस पर सूरज उगता और डूबता है” अकारण नहीं है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया है कि अगर बुद्धि स्वयं को इंसान के रूप में दिखाये तो वह इंसान हसन है”

इमाम हसन अलैहिस्सलाम का धैर्य प्रसिद्ध था लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह मोआविया के ग़ैर इस्लामी व अमानवीय कार्यों पर मौन धारण करते थे बल्कि उचित समय पर स्पष्ट शब्दों में वास्तविकता को बयान करते थे। वे मोआविया के ग़ैर इस्लामी व अनैतिक कार्यों का मुखर विरोध करते थे। उदाहरण के तौर पर सुलह के बाद मोआविया कूफे आया और लोगों की भीड़ के बीच वह मिमंबर पर गया। उसनक  पूरे दुस्साहस के साथ हज़रत अली अलैहिस्सलाम को बुरा भला कहना आरंभ किया। अभी उसकी बात समाप्त भी नहीं हुई थी कि इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने उसी मिमंबर की एक सीढी पर खड़े होकर कहा क्या तू अमीरूल मोमिनीन अली को बुरा- भला कहता है जबकि पैग़म्बरे इस्लाम ने उनके बारे में कहा है कि जिसने अली को बुरा भला कहा उसने मुझे बुरा भला कहा और जिसने मुझे बुरा भला कहा उसने ईश्वर को बुरा भला कहा और जिसने ईश्वर को बुरा भला कहा ईश्वर उसे हमेशा के लिए नरक में दाखिल करेगा और वह उसे वहां पर सदैव दंड देगा” उसके बाद इमाम हसन अलैहिस्सलाम मिमंबर से नीचे उतर आये और आपत्ति स्वरूप मस्जिद से बाहर चले गये। इमाम हसन अलैहिस्सलाम का इस तरह का साहसी बयान व व्यवहार मोआविया और उसके चाहने वालों के लिए असहनीय था।

इमाम हसन अलैहिस्सलाम सब कुछ जानते थे कि माओविया के साथ सुलह करने के बाद उन्हें उनके अनभिज्ञ अनुयाइयों के कटाक्ष व अप्रिय बातें सुननी पड़ेंगी परंतु उन्होंने किसी भी बात की परवाह नहीं की और उन्होंने वही किया जो इस्लाम और मुसलमानों के हित में था। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने धैर्य किया यहां तक कि लोगों ने मोओविया और बनी उमय्या की वास्तविकता देख और समझ ली। इमाम हसन अलैहिस्सलाम और माअविया के मध्य जो संधि हुई थी माअविया ने पहले दिन से ही उसका उल्लंघन आरंभ कर दिया था। नौबत यहां तक आ पहुंची कि एक दिन उसने एक भाषण में लोगों से कहा हे इराक के लोगो मैंने तुमसे युद्ध किया ताकि तुम पर शासन करूं उसके बाद उसने इमाम हसन अलैहिस्सलाम के साथ होने वाली संधिपत्र को फाड़ कर पैर से कुचल दिया।  

मोअविया का यह व्यवहार इस बात का कारण बना कि लोग धीरे धीरे निश्चेतना की नींद से जाग गये। इमाम हसन अलैहिस्सलाम की नीति यह थी कि वह अपने धैर्य से लोगों को यह अवसर दें कि लोग अपनी आंखों से बनी उमय्या के भ्रष्टाचार एवं अत्याचार को देख लें। अगर लोग बनी उमय्या को न पहचाने होते तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन पर प्रश्न चिन्ह लग जाता और इस महाआंदोलन के लिए भूमि प्रशस्त न होती। ऐसे में कहा जा सकता है कि इस्लाम का बाकी रहना इमाम हसन अलैहिस्सलाम के धैर्य एवं दूरगामी सोच का परिणाम है। दिवंगत शेख राज़ी आले यासिन के कथनानुसार करबला की कहानी हुसैनी होने से पहले हसनी है।

पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास और उनके प्राणप्रिय नाती की शहादत के दुःखद अवसर पर एक बार फिर आप सब की सेवा में हार्दिक संवेदना प्रस्तुत करते हैं और आज के कार्यक्रम का समापन हम हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के एक कथन से कर रहे हैं। आप फरमाते हैं जिसके पास धैर्य नहीं है उसके लिए सफलता नहीं है।

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