क्या हज़रत ज़हरा मरते समय शेख़ैन से प्रसन्न हो गईं थीं? + जवाब

अगर मान भी लिया जाए कि बीबी ज़हरा कुछ समय के लिए शेख़ैन नाराज भी हुईं थीं, लेकिन यह भी अपने स्थान पर साबित है कि बीबी ज़हरा के जीवन के अंतिम दिनों में शेख़ैन बीबी के पास आए और उनसे क्षमा मांग कर उन्हें प्रसन्न कर लिया था, जैसा कि बयाकी और दूसरों ने नकल कि

सैय्यद ताजदार हुसैन ज़ैदी

अगर मान भी लिया जाए कि बीबी ज़हरा कुछ समय के लिए शेख़ैन नाराज भी हुईं थीं, लेकिन यह भी अपने स्थान पर साबित है कि बीबी ज़हरा के जीवन के अंतिम दिनों में शेख़ैन बीबी के पास आए और उनसे क्षमा मांग कर उन्हें प्रसन्न कर लिया था, जैसा कि बयाकी और दूसरों ने नकल किया है कि:

عن الشعبي قال لما مرضت فاطمة أتاها أبو بكر الصديق فأستئذن عليها فقال علي يا فاطمة هذا أبوبكر يستئذن عليك فقالت أتحب أن أأذن؟ قال نعم فأذنت له فدخل عليها يترضاها و قال و الله ما تركت الدار و المال و الأهل و العشيرة إلا لإبتغاء مرضاة الله و مرضاة رسوله و مرضاتكم أهل البيت ثم ترضاها حتي رضيت.

जब हज़रत फ़ातिमा बीमार हुई तो अबूबक्र उनको खुश करने के लिए उनके पास आए और उनसे मुलाकात करने के लिए अनुमति मांगी,  अली (अ) ने फातिमा (स) से कहा कि अबुबक्र आपसे मुलाक़ात की अनुमति चाहते हैं,  हज़रत ज़हरा (स.) ने कहा कि क्या आप चाहते हैं कि वह घर में प्रवेश करें? अली (अ) ने फ़रमाया कि हां,  तो फातिमा (स) ने यह सुनकर अबूबक्र को घर में आने की अनुमति दे दी, अबूबक्र घर में आए और कहा: अल्लाह साक्षी है कि मैने अपना घर, परिवार धन सबकुछ छोड़ दिया केल अल्लाह उसके रसूल और उनके अहलेबैत को प्रसन्न करने लिए, यह सुनकर फातिमा उनसे राज़ी हो गईं। (1)

हदीस की समीक्षा

नबी की बेटी हज़रत ज़हरा (स) का शेख़ैन प्रसन्न न होना यह उन दोनों की खिलाफत को जड़ से ही गैर शरई और अवैध घोषित कर देता है, क्योंकि यह नाराजगी साबित करती है कि रसूल अल्लाह (स.) की बेटी, स्वर्ग की महिलाओं की सरदार, अबूबक्र और उमर की खिलाफत की विरोधी थी और इन दोनों से क्रोधित थीं और अहले सुन्नत की प्रसिद्ध और सही किताबों में सही सनद रिवायतों के आधार पर फातिमा (स) का राजी होना, रसूले ख़ुदा (स) का राज़ी होना है और फातिमा (स) का नाराज होना, रसूले ख़ुदा (स) का नाराज होना है।

यही कारण है कि अहले सुन्नत के उलमा को अपने ख़लीफ़ा अबूबक्र और उमर की खिलाफत को बचाने के लिए झूठी रिवायतों का सहारा लेना पडा घड़ा जिससे वह वह साबित कर सकें कि रसूले ख़ुदा की बेटी अगरचे शैख़ैन से नाराज़ थी लेकिन जब उनके जीवन के अंतिम दिनों में यह लोग, जब उनके घर उनको देखने गए तो उन्हें राजी कर लिया और बीबी ने भी इन दोनों को क्षमा कर दिया था!

हम उनके जवाब में कहते हैं:

सबसे पहले: इस रिवायत की सनद मुरसल (अहले सुन्नत के अनुसार मुरसल उस रिवायत को कहा जाता है जिसमें कोई ताबई बिना सहाबी को माध्यम बनाए हुए कहे कि पैग़म्बर ने इस प्रकार फ़रमाया, इस प्रकार की रिवायत को सही मुसलिम के लेखल मुस्लिम प्रमाणित नहीं मानते हैं।) है, क्योंकि इस रिवायत का रावी शअबी ताबई है जिसके कारण वह इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी नहीं था जब कि वह बयान ऐसे कर रहा है कि जैसे उसने यह सब स्वंय देखा है और यह घटना उसके सामने घटित हुई है।

 

समीक्षा:

अगर मान लें कि ताबई की मुरसल रिवायत स्वीकार्य है, फिर भी शअबी की रिवायत को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह अमीर अमीरुलमोमिनीन अली (अ) के दुश्मनों में से और नासबी था, जैसा कि बेलाज़री और अबू हामिद गजाली ने खुद शअबी के हवाले से लिखा है कि:

عن مجالد عن الشعبي قال: قدمنا علي الحجاج البصرة، وقدم عليه قراء من المدينة من أبناء المهاجرين و الأنصار، فيهم أبو سلمة بن عبد الرحمن بن عوف رضي الله عنه... و جعل الحجاج يذاكرهم و يسألهم إذ ذكر علي بن أبي طالب فنال منه و نلنا مقاربة له و فرقاً منه و من شره....

हम बसरा शहर में हज्जाज के पास गए, वहां पर मदीने के मोहाजिर (प्रवासी) और अंसार की औलाद में से कुरान के कारियों का एक समूह मौजूद था जिनमें अबू सलमा इब्ने अब्दुल रहमान इब्ने औफ़ भी था। हज्जाज उनसे बातचीत करने में व्यस्त हो गया। बातों बातों में अली इब्ने अबी तालिब का भी जिक्र हुआ तो हज्जाज ने अली को बुरे शब्दों से याद किया। हम ने भी हज्जाज को प्रसन्न करने और उसकी हां में हां मिलाने के लिए, अली को बुरा भला कहना शुरू कर दिया ...., (2)

क्या हमारे लिए एक नासबी की रिवायत हुज्जत और विश्वास के योग्य हो सकती है??

अहले सुन्नत की सबसे सही पुस्तकों में हज़रत ज़हरा (स) के अबुबक्र से नाराज होने का उल्लेख:

सबसे पहले:

हज़रत ज़हरा (स) का अबूबक्र और उम्र पर क्रोधित होना, यह सभी के लिए सूर्य की किरणों की भाति इस प्रकार स्पष्ट है कोई भी इसका इनकार नहीं कर सकता है, अहले सुन्नत के लिए क़ुरआन के बाद सबसे सच्ची किताब सही बुखारी में आया है कि हज़रत ज़हरा का अबूबक्र पर क्रोध और आपकी नाराजगी मरते दम तक जारी थी।

बुखारी ने ख़ुम्स अध्याय में लिखा है कि

فَغَضِبَتْ فَاطِمَةُ بِنْتُ رسول اللَّهِ صلي الله عليه و سلم فَهَجَرَتْ أَبَا بَكْرٍ فلم تَزَلْ مُهَاجِرَتَهُ حتي تُوُفِّيَتْ.

रसूले ख़ुदा की बेटी फातिमा (स.) नाराज हो गईं और अबूबक्र से बात करना तक छोड़ दिया था और मरते दम तक बात नहीं की थी। (3)

अलमग़ाज़ी अध्याय की हदीस नंबर 3998 में बुख़ारी ने इस प्रकार लिखा हैः

فَوَجَدَتْ فَاطِمَةُ علي أبي بَكْرٍ في ذلك فَهَجَرَتْهُ فلم تُكَلِّمْهُ حتي تُوُفِّيَتْ،

फ़ातेमा अबूबक्र से क्रोधित हो गईं और मरते दम तक उनसे बात नहीं की। (4)

बुख़ारी ने अलफ़राएज़ अध्याय के “क़ौल अन्नबी ला नूरसो मा तरकनाहो सदक़ा” के बाब की हदीस 6346 में लिखा हैः

فَهَجَرَتْهُ فَاطِمَةُ فلم تُكَلِّمْهُ حتي مَاتَتْ

फ़ातेमा ने अबूबक्र से बात करनी बंद कर दी यहां तक की आपकी मौत हो गई। (5)

इब्ने क़ोतैबा की रिवायत में आया है कि जब अबूबक्र और उमर अयादत के लिए आए तो हज़रत ज़हरा (स) ने उन्हें घर में आने की अनुमति नहीं दी, तो उन्होंने विवश होकर अली (अ) से बात की। अली (अ) ने हज़रत ज़हरा से बात की तो बीबी ने अमीरुलमोमिनीन (अ) से कहा:

अलबैतो बेतुका।

यह घर आपका है,

आपको हक़ है जिसके चाहें घर में लाएं। अमीरुल मोमिनीन ने हुज्जत तमाम करने के लिए इन दोनों को घर में आने की अनुमति दे दी ताकि बाद में वे न कहें कि हम तो रसूले ख़ुदा की बेटी को राज़ी करने के लिए गए थे, लेकिन अली ने हमें घर में जाने न दिया,

जब इन दोनों ने क्षमा मांगी तो हज़रत ज़हरा (स) ने स्वीकार नहीं किया, बल्कि उनसे यह बयान लिया कि:

نشدتكما الله ألم تسمعا رسول الله يقول: رضا فاطمة من رضاي و سخط فاطمة من سخطي فمن أحب فاطمة ابنتي فقد أحبني و من أ رضي فاطمة فقد أرضاني و من أسخط فاطمة فقد أسخطني،

मैं तुम दोनों को ख़ुदा की क़सम देती हूँ क्या तुम दोनों ने रसूले खुदा से नहीं सुना कि उन्होंने फ़रमाया किः फातिमा का राजी होना, मेरा राज़ी होना है और उसका नाराज़ होना, मेरा नाराज होना है। जो भी मेरी बेटी फातिमा से मुहब्बत करे और उसका सम्मान करे, उसने मुझसे प्यार और मेरा सम्मान किया है और जो फातिमा को खुश कर तो उसने मुझे राजी किया है और जो फातिमा को नाराज़ करे तो उसने मुझे नाराज क्या है, ???

अबूबक्र और उमर दोनों ने स्वीकार किया कि हाँ हम ने इस बात को अल्लाह के रसूल से सुना है,

نعم سمعناه من رسول الله صلي الله عليه و سلم.

उनके स्वीकार करने पर पैग़म्बर की बेटी ने फ़रमायाः

فإني أشهد الله و ملائكته أنكما أسخطتماني و ما أرضيتماني و لئن لقيت النبي لأشكونكما إليه.

मैं अल्लाह और उसके स्वर्गदूतों (फ़रिश्तों) को साक्षी मानकर कहती हूँ कि तुम दोनों ने मुझे दुख दिया और नाराज़ किया है और मैं अपने पिता रसूले ख़ुदा से मुलाक़ात में तुम दोनों की शिकायत करूंगी।

और कहा कि:

و الله لأدعون الله عليك في كل صلاة أصليها.

ख़ुदा की क़सम हर नमाज़ के बाद तुम दोनों पर धिक्कार (लानत) करती हूँ। (6)

इन सबके बावजूद कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि फ़ातेमा ज़हरा (स.) इन दोनों से प्रसन्न हो गईं थीं? बुखारी की रिवायत को प्राथ्मिकता दी जाएगी या बैहक़ी की रिवायत को (अहले सुन्नत के विश्वास के अनुसार बुख़ारी की रिवायत को प्राथ्मिकता दी जाएगी)? जब कि दूसरी तरफ़ बैहक़ी की रिवायत का रावी एक ऐसा व्यक्ति है जो अमीरुल मोमिनीन का नासबी और उनका दुश्मन है और इससे बड़ी बात तो यह है कि वह जिस घटना की रिवायत कर रहा है उसका प्रत्यक्षदर्शी नहीं था?

 

दूसरी बात:

अगर हज़रत ज़हरा (स) इन दोनों से राज़ी हो गईं थीं, तो उन्होंने क्यों हज़रत अली को वसीयत की कि मुझे रात को दफनाना और कहा कि जिन लोगों ने मुझ पर अत्याचार किया है, उनको मेरे जनाज़े में न आने देना और मुझ पर नमाज़ भी न पढ़ने देना?

मुहम्मद बिन इस्माइल बुखारी ने लिखा है कि:

وَ عَاشَتْ بَعْدَ النبي صلي الله عليه و سلم سِتَّةَ أَشْهُرٍ فلما تُوُفِّيَتْ دَفَنَهَا زَوْجُهَا عَلِيٌّ لَيْلًا و لم يُؤْذِنْ بها أَبَا بَكْرٍ وَ صَلَّي عليها،

रसूले ख़ुदा के बाद फातिमा छह महीने तक जीवित रहीं और जब वह दुनिया से चली गईं तो उनके पति अली ने उन्हें रात को दफनाया और अबूबक्र को इस घटना की खबर न दी और खुद ही उन पर नमाज़ पढ़ी। (7)

इब्ने क़ुतैबा दयनवरी ने अपनी किताब तावील मुख़तलेफ़ुल हदीस में लिखा हैः

و قد طالبت فاطمة رضي الله عنها أبا بكر رضي الله عنه بميراث أبيها رسول الله صلي الله عليه و سلم فلما لم يعطها إياه حلفت لا تكلمه أبدا و أوصت أن تدفن ليلا لئلا يحضرها فدفنت ليلا۔

फातिमा ने अपने पिता रसूले ख़ुदा की मीरात (पैतृक सम्पत्ती) को अबूबक्र से मांगा, तो जब अबूब्कर ने मीरास देने से इनकार कर दिया तो उन्होंने कसम खाई कि अब वह उस से बात नहीं करेंगी और वसीयत की कि मुझे रात को दफन करना ताकि अबूबक्र मेरे जनाज़े में शरीक न हो सके। (8)

और अब्दुल रज़्ज़ाक़ सनआनी ने लिखा है कि:

عن بن جريج و عمرو بن دينار أن حسن بن محمد أخبره أن فاطمة بنت النبي صلي الله عليه و سلم دفنت بالليل قال فر بها علي من أبي بكر أن يصلي عليها كان بينهما شيء۔

हसन इब्ने मोहम्मद से नक़्ल हुआ है कि उसने कहा: रसूले ख़ुदा की बेटी को रात में दफनाया गया ताकि अबूबक्र उन पर नमाज़ न पढ़ सके, क्योंकि इन दोनों के बीच नाराजगी थी। (इसलिये खुद फातिमा ज़हरा ने इस बात की वसीयत की थी)

और लिखता हैः

عن بن عيينة عن عمرو بن دينار عن حسن بن محمد مثله الا أنه قال اوصته بذلك

हसन बिन मुहम्मद से पहले वाली रिवायत की तरह एक दूसरी रिवायत नक़्ल हुई है, लेकिन इस रिवायत में उसने कहा है: फातिमा ने खुद ही रात को दफ़्न करने के बारे में वसीयत की थी। (9)

बहुत संभव है कि कोई कहे कि अबुबक्र को बाद में अपने किए पर पछतावा हो गया था और उन्होंने अपने इस कार्य पर तौबा कर ली थी।

तो इसके जवाब में कहना चाहिए कि: पश्चाताप तब फायदेमंद होता है जब इंसान पश्चाताप करने के साथ साथ अपने कार्य पर लज्जित हो और इसके साथ साथ अतीत में किए गए गलत काम की भरपाई भी करे,  यानी तौबा करने वाला व्यक्ति किसी भी बर्बाद गए हक़ की भरपाई करे, चाहे वह हक़ अल्लाह का हो या इंसानों का।

अब हमारा यह प्रश्न यह है कि जब अबूबक्र ने अपने किए पर लज्जित हो कर तौबा की थी, तो क्या हज़रत ज़हरा (स) को उनका अधिकार फिदक़ वापस कर दिया था, ताकि उनकी तौबा सच्ची तौबा हो और अल्लाह की में भी स्वीकार हो सके???

नतीजा

हज़रत ज़हरा (स) का अबूबक्र और उमर से मरते दम तक नाराज रहना और उनसे बात तक न करना यह एक ऐसी वास्तविकता है जिसका खुद अहले सुन्नत की सही पुस्तकों में उल्लेख किया है। अबूबक्र और उमर के माफी मांगने के बावजूद रसूले ख़ुदा (स) की बेटी द्वारा माफ न किया जाना और उनसे राज़ी न हो, इससे हज़रत ज़हरा (स) की नाराजगी की तीव्रता को समझा जा सकता है, और यह नाराजगी दुनिया और सांसारिक सम्पत्ती के लिए नहीं थी जैसा कि कुछ पक्षपाती और अनभिज्ञ वहाबी समझते हैं। निश्चित रूप से यह नाराजगी परमेश्वर की राह और अल्लाह के लिए थी। इसी अर्थ को रसूले ख़ुदा की हदीस से भी समझा जा सकता है।

अबूबक्र की शर्मिंदगी और पश्चाताप वाली बात भी नकली और झूठी है और बैहक़ी की रिवायत जिसमें उल्लेख हुआ था कि हज़रत ज़हरा अबूबक्र से प्रसन्न हो गईं थीं, यह रिवायतः

1.    सही बुख़ारी की रिवायत से साथ टकरा रही है।

2.    इस रिवायत की सनद में एक नासबी व्यक्ति के मौजूद होने की वजह से यह रिवायत सही और विश्वसनीय नहीं है।

 

 

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1.    अलबैहक़ी, अहमद बिनुल हुसैन (निधन458 हिजरी) दलाएलुन नबूवा, जिल्द 7स पेज 281, अलबैहक़ी, अहमद बिनुल हुसैन, अलएतेक़ाद वल हिदाया एला सबीलिर्रेशाद अला मज़हबिस सलफ़ व असहाबिल हदीस, जिल्द 1, पेज 354, अनुसंधानः अहमद एसाम अलकातिब, प्रकाशनः दारुल आफ़ाक़ अलजदीदा, बैरूत, पहला प्रकाशन, 1401 हिजरी

2.    अलवेलाज़री, अहमद बिन यहया बिन जाबिर (निधन 279 हिजरी) अंसाबुल अशराफ़, जिल्द 4, पेज 315, अलग़ज़ाली, मोहम्मद बिन मोहम्मद अबू हामिद (निधन 505 हिजरी) एहया उलूमुद्दीन, जिल्द 2, पेज 346, प्रकाशनः दारुल मारेफ़ा, बैरूत

3.    अलबोख़ारी अलजाफ़ी, मोहम्मद बिन इस्माईल अबू अब्दिल्लाह (निधन 256) सही बुख़ारी, जिल्द 3, पेज 1126 हदीस 2926, बाब फ़र्ज़िल ख़ोमुस. अनुसंधान, मुस्तफ़ा दीब अलबग़ा, प्रकाशन दारो इब्ने कसीर, अलयमामा, बैरूत, तीसरा प्रकाशन 1987

4.    अलबोख़ारी अलजाफ़ी, मोहम्मद बिन इस्माईल अबू अब्दिल्लाह (निधन 256) सही बुख़ारी, जिल्द 4, पेज 1549 हदीस 3998, किताबुल मग़ाज़ी बाब ग़ज़वतो ख़ैबर. अनुसंधान, मुस्तफ़ा दीब अलबग़ा, प्रकाशन दारो इब्ने कसीर, अलयमामा, बैरूत, तीसरा प्रकाशन 1987

5.    अलबोख़ारी अलजाफ़ी, मोहम्मद बिन इस्माईल अबू अब्दिल्लाह (निधन 256) सही बुख़ारी, जिल्द 6, पेज 2474 हदीस 6346, किताबुल फ़राएज़, बाब “क़ौलिन्नबी ला नूरसो मा तरकनाहो सदक़ा” अनुसंधान, मुस्तफ़ा दीब अलबग़ा, प्रकाशन दारो इब्ने कसीर, अलयमामा, बैरूत, तीसरा प्रकाशन 1987

6.    अलदैनवरी, अबू मोहम्मद अब्दुल्लाह बिन मुस्मिल इब्ने क़ुतैबा (निधन 276 हिजरी) अलइमामा वलसियासा, जिल्द 1, पेज 17 बाब क़ैयफ़ियतो कानत बैअतो अली रज़ियल्लाह अनहो, अनुसंधानः ख़लील अलमंसूर, प्रकाशनः दारुल कोतोबुल इल्मिया, बैरूत 1997

7.    अलबोख़ारी अलजाफ़ी, मोहम्मद बिन इस्माईल अबू अब्दिल्लाह (निधन 256 हिजरी) सही बुख़ारी, जिल्द 4, पेज 1549 हदीस 3998, तिकाबुल मग़ाज़ी, बाबुल ग़ज़वा ख़ैबर. अनुसंधान, मुस्तफ़ा दीब अलबग़ा, प्रकाशन दारो इब्ने कसीर, अलयमामा, बैरूत, तीसरा प्रकाशन 1987

8.    अलदैनवरी, अबू मोहम्मद अब्दुल्लाह बिन मुस्लिम इब्ने क़ोतैबा (निधन 276 हिजरी) तावीलो मुख़तलेफ़िल हदीस, जिल्द 1, पेज 300, अनुसंधानः मोहम्मद ज़हरी अलनज्जार, प्रकाशन दारुल जील बैरूत 1972

9.    अलसनआनी, अबूबक्र अब्दुल रज़्ज़ाक़ बिन हमाम (निधन 211 हिजरी) अलमुसन्निफ़, जिल्द 3, पेज 512 हदीस 6554, अनुसंधानः हबीब अलरहमान अलआज़मी, प्रकाशनः अलमकतबुल इस्लामी

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