इमाम सादिक़ (अ) की सियासत

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) के युग में बनी उमय्या और बनी अब्बास के बीच सत्ता प्राप्त करने के लिए खींचा तानी चल रही थी, और इस मौक़े से लाभ उठाते हुए इमाम सादिक़ (अ) और आपके पिता इमाम बाक़िर (अ) ने इस्लामी शिक्षाओं को फैलाना आरम्भ किया और अगर यह कहा जाए कि आप दोन

अनुवादकः सैय्यदा सकीना बानों अलवी

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) के युग में बनी उमय्या और बनी अब्बास के बीच सत्ता प्राप्त करने के लिए खींचा तानी चल रही थी, और इस मौक़े से लाभ उठाते हुए इमाम सादिक़ (अ) और आपके पिता इमाम बाक़िर (अ) ने इस्लामी शिक्षाओं को फैलाना आरम्भ किया और अगर यह कहा जाए कि आप दोनों ने उस युग में पहले इस्लामी विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया तो कुछ भी ग़लत नहीं होगा।

इस विश्वविद्यालय का लक्ष्य शुद्ध और मोहम्मदी इस्लाम को फैलाना था, इसके साथ साथ इमाम सादिक़ (अ) ने अपने युग के ख़लीफ़ा को यह बात समझाने का प्रयत्न किया कि सत्ता और समाज का मार्गदर्शन हमारा हक़ है।

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने मंसूर दवानेक़ी के ज़माने में जब्कि बनी अब्बास सत्ता में आ चुके थे और सत्ता को स्थापित और मज़बूत करने के लिए हर विरोधी को मौत के घाट उतार रहे थे। आपने उस समय भी अपने कथनों से ख़लीफ़ा कर यह बात पहुंचाई कि सत्ता और समाज का नेत्रत्व हमारा हक़ है, इसके साथ साथ इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने अली (अ) के उन शियों को जो अत्याचार, ज़ुल्म या फिर जानकारी ना होने के कारण यह मसझने लगे थे कि हुकूमत कोई अलग चीज़ है और दीन एक अलग चीज़, आपने इन लोगों के लिए भी यह बात स्पष्ट कर दी कि हुकूमत विलायत का हक़ है और विलायत केवल हमारे यानी अहलेबैत (अ) के लिए हैं।

जैसा कि आपने एक बार फ़रमायाः

इस्लाम पांच चीज़ों पर स्थित हैं (यानी इस्लाम का आधार यह पांच चीज़ें हैं)

1.    नमाज़।

2.    ज़कात।

3.    हज।

4.    रोज़ा।

5.    विलायत

ज़ोरारा ने इमाम से प्रश्न किया कि इन पांचों चीज़ों में सबसे बड़ी कौन सी चीज़ है?

आपने फ़रमायाः

विलायत सबसे बड़ी है क्योंकि विलायत सारी चीज़ों की कुंजी है और हुकूमत करने वाला लोगों का उसकी तरफ़ मार्गदर्शन करता है। (1)

इस कथन से इमाम (अ) ने उन लोगों को जो कि यह सोंचते हैं कि दीन और राजनीति दो अलग चीज़ें हैं या बता दिया कि दीन का जारी करना और उसका कमाल सत्ता के बिना संभव ही नहीं है, यह सत्ता ही है जो इस्लामी हाकिम को यह अख़्तियार देती है कि वह दीन को पूरी तरह से समाज में जारी करे, यह हुकूमत ही है तो इस्लामी शासक को यह शक्ति देती है कि वह दीन के विरुद्ध होने वाली हर साज़िश को समाप्त कर दे, इसलिए हमारा मानना यह है कि हर अत्याचारी और ज़ालिम व्यक्ति ख़लीफ़ा नहीं बन सकता बल्कि उसका मुत्तक़ी और परहेज़गार होना आवश्यक है।

इसी युग में कुछ विद्वानों ने बनी अब्बास की हुकूमत को अपने लाभ के लिए सही साबित करने का प्रयत्न किया और लोगों को समझाना चाहा कि कि यह हुकूमत सही है तो इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने इसके विरुद्ध भी अपना जेहाद आरम्भ किया और अपने कथनों से ऐसे विद्वानों की निंदा की जो अत्याचारी और ज़ालिम शासकों के दरबार में जीवित लाशों की की तरह थे।

इमाम सादिक़ (अ) ने फ़रमायाः

फक़ीह नबियों के प्रतिनिधि हैं और जब भी यह फ़क़ीह शासकों के दरबार के चक्कर लगाने लगें तो उन पर आरोप लगाओ (यानी उसके सही विद्वान होने के बारे में शक करो) (2)

इमाम (अ) ने अपने क्लासों या अपने भाषणों में रसूले इस्लाम (स) से यह हदीस बयान करना शुरू कर दी किः

फ़ोक़हा उस समय तक नबियों के प्रतिनिधि हैं जब तक दुनिया उनपर हावी ना हो जाए,

पूछा गया हे अल्लाह के रसूल दुनिया कब हावी होगी, तो आपने फ़रमाया अत्याचारी शासक के अनुसरण के समय और जब भी तुम ऐसा देखो तो अपने दीन को उनसे अलग कर लो। (3)

एक बार इमाम सादिक़ (अ) बाज़ार से जा रहे थे तो आपने देखा कि अज़ाफ़िर दुकान पर खड़े कुछ ख़रीद रहे हैं, इमाम (अ) ने आगे बढ़कर सलाम किया और पूछा अज़ाफ़िर सुना है कि अबू अय्यूब और रबी (ख़लीफ़ा के दो वज़ीर) के लिए काम कर रहे हो याद रखो क़यामत के दिन तुम्हारा हाल उन दो जैसा होगा सोंचो उस समय तुम्हारी क्या हालत होगी जब तुमको अत्याचारी की सहायता करने वाले के नाम से आवाज़ दे कर बुलाया जाएगा यह सुनते ही अज़ाफ़िर के चेहरे का रंग बदल गया।

इमाम (अ) ने फिर फ़रमाया कि में अपनी तरफ़ से कुछ नहीं कह रहा केवल इस चीज़ से डर रहा हूँ जिससे ख़ुदा ने मुझको डराया है।

यह कहने के बाद इमाम (अ) आगे चल दिए अज़ाफ़िर इतना अधिक प्रभावित हुए कि कहते हैं कि अपने पूरे जीवनकाल में वह दुखी और ग़मगीन रहे। (4)

इमाम (अ) ने अपने मानने वाले की बाज़ार में निंदा करने के लिए और उनको सीधा रास्ता दिखाने के लिए यह बात कही, निःसंदेह इमाम भी यही चाहते होंगे कि जो लोग आसपास खड़े होए हैं वह भी यह बात सुन लें कि अत्याचारी की सहायता करना ऐसा ही है जैसा कि स्वंय अत्याचार करना।

एक और स्थान पर इमाम सादिक़ (अ) ने फ़रमायाः

जो कोई यह चाहता है कि अत्याचारी बाक़ी रहें वह ऐसे ही है कि जैसे वह चाहता हो कि ख़ुदा की अवहेलना और नाफ़रमानी होती रहे। (5)

इन कथनों से इमाम लोगों को यह बता देना चाहते हैं कि अगर हमारे शिया या हमारे मानने वाले हमारा साथ नहीं दे सकते कि हम इन अत्याचारियों को सत्ता से हटा दें तो ऐसा नहीं है कि हम ख़ामोश बैठ जाए। नहीं! बल्कि हमारा जिहाद अत्याचारियों से जारी है और वह ज़बान के माध्यम से है जिसको समाप्त करने का केवल एक ही तरीक़ा है कि हमारी ज़बानों को काट दिया जाए।

इमाम (अ) ही के युग में बनी अब्बास की हुकूमत की स्थापना के बाद लोगों में यह बातें की गईं कि अगर यह हुकूमतें सही नहीं हैं तो कम से कम इनके साथ मिलकर लोगों के लाभ और सेवा का कार्य तो किया जा सकता है। बहुत से सीधे साधे लोग इस धोखे में आ गए और उन्होंने हुकूमत का साथ देना आरम्भ कर दिया। इमाम (अ) ने हुकूमत की इस चाल को भी अपने कथनों से बेकार कर दिया ।

इमाम (अ) ने एक छोटा सा जुम्ला फ़रमाया किः

यहां तक कि मस्जिद बनाने में भी अत्याचारी की सहायता ना करो। (6)

इमाम सादिक़ (अ) ने समाज में फैले हुए ऐसे लोगों की भी निंदा की जो पैसे के लालच में जानते हुए भी कि यह ग़ासिब और अत्याचारी हैं उनकी प्रशंसा करते थे।

इमाम फ़रमाते हैं

अगर कोई अत्याचारी शासकों की प्रशंसा करे और पैसे के लालच में उसका सम्मान करे तो वह व्यक्ति उस अत्याचारी का आख़ेरत में पड़ोसी होगा। (7)

जैसा कि हमने बताया कि हमारे इमामों (अ) ने बार बार लोगों तक यह पैग़ाम पहुंचाया है कि हुकूमत और विलायत हमारा हक़ है और हम ही इसके हक़दार हैं।

इसके अंतरगत इमाम की राजनीतिक सोंच का तक़ाज़ा यही था कि लोगों तक यह पैग़ाम पहुंचाए कि इस्लाम के आरम्भ से लेकर अंत कर जितने भी ख़लीफ़ा आएंगे अगर वह हमारे अतिरिक्त कोई और हो तो वह ग़ासिब है।

इस सोंच को बयान करना ऐसा ही था कि जैसे शेर के मुंह से शिकार को छीन लेना, इमाम (अ) ने हालात पर नज़र रखते हुए इस प्रकार बयान दिए कि लोगों तक यह बात पहुंच गई और वह इस प्रकार हुआ कि उस ज़माने में लोग बनी उमय्या या बनी अब्बास के ख़लीफ़ाओं को अमीरुल मोमिनीन कह कर पुकारते थे, एक शिया ने आपसे प्रश्न किया कि क्या इमाम ज़माना (अ) के ज़ोहूर के बाद उनको अमीरुल मोमिनीन कह कर सलाम कर सकेंगे?

इमाम इस प्रश्न के उत्तर में एक पूरी सोंच दी और फ़रमायाः

यह नाम (अमीरुल मोमिनीन) विशेष हैं अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली इबने अबीतालिब (अ) से उनसे पहले ना किसी को इस नाम से पुकार गया और ना उनके बाद किसी को इस नाम से पुकारा जाएगा, मगर काफ़िर को। (8)

इमाम (अ) ने स्पष्ट शब्दों में यह बात लोगों तक पहुंचा दी कि जो भी अपने को अमीरुल मोमिनीन कहलाएगा वह काफ़िर है।

अपने अंतिम दौर में भी इमाम (अ) ने राजनीतिक गंभीरताओं को मसझा और उसके तोड़ के लिए कार्य किया।

मंसूर दवानेक़ी ने आप को बहुत परेशान किया और आप पर अत्याचार किए और कई बार आपको क़त्ल करने की धमकी दी, आपने मंसूर की इन्हीं बातों को देखते हुए अपने उत्तराधिकारी की जान बचाने के लिए एक राजनीतिक नीति अपनाई।

इमाम (अ) ने अपनी वसीयत में पांच लोगों को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया

1.    अबू जाफ़र मंसूर दवानेक़ी (ख़ुद उस समय का ख़लीफ़ा)

2.    मोहम्मद बिन सुलैमान (मदीने का राज्यपाल)

3.    अब्दुल्लाह अफ़ता (आपके बेटे)

4.    मूसा बिन जाफ़र (अ) (आपके बेटे)

5.    हमीदा (आपकी पत्नि)

यह वसीयत जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है राजनीतिक थी क्योंकि इमाम सादिक़ (अ) के प्रतिनिधि और जानशीन इमाम मूसा काज़िम (अ) थे।

जब इमाम (अ) के निधन की सूचना मंसूर के मिली तो उसने पहले एक वज़ीर को बुलाया और कहा कि मदीने के राज्यपाल के नाम एक पत्र लिखो।

यह पत्र मदीने के राज्यपाल मोहम्मद बिन सुलैमान के लिए समय के ख़लीफ़ा मंसूर की तरफ़ से है अगर जाफ़र बिन मोहम्मद (अ) ने किसी विशेष व्यक्ति को अपने प्रतिनिधि और जानशीन बनाया हो तो उसको अपने पास बुलाओ और उसका सर धड़ से अलग कर दो।

यह पत्र मदीने के राज्यपाल के पास पहुंचा तो उसका उत्तर कुछ यूं आया कि जाफ़र बिन मोहम्मद (अ) ने पांच लोगों को अपना वसी और जानशीन बनाया है।

1.    अबू जाफ़र मंसूर दवानेक़ी

2.    मोहम्मद बिन सुलैमान

3.    अब्दुल्लाह अफ़ता

4.    मूसा बिन जाफ़र

5.    हमीदा (9)

जब मंसूर को यह पत्र मिला तो उसने कहाः

मेरे पास इन लोगों को क़त्ल करने का कोई रास्ता नहीं है (क्योंकि इन पांच में एक ख़ुद उसका नाम भी था) (10)

इसके अतिरिक्त इमाम (अ) ने एक और वसीयत भी की कि मेरी मौत के सात साल बाद तक हज के दिनों में इमाम हुसैन (अ) की अज़ादारी की जाए और इस अज़ादारी के लिए अपने अपने माल का कुछ भाग निश्चित किया।

आपकी यह वसीयत भी राजनीतिक थी क्योंकि इन मजलिसों के माध्यम से दूसरे लोग इमाम हुसैन (अ) की मज़लूमियत को जानते और उनको पता चलता कि किस प्रकार इमाम (अ) पर अत्याचार हुए हैं और जब इससे उनके दिल इमाम की तरफ़ होतो तो वह इमामों (अ) के जीवन के बारे में छानबीन करते जिसका नतीजा यह निकलता कि लोग बातिल हुकूमत से दूरी करते और नेक लोग लोगों के शासक होते। (11)

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1. वसाएलुश शिया, जिल्द 1 पेज 807

2. कशफ़ुल गुम्मा, जिल्द 2, पेज 182

3. उसूले काफ़ी जिल्द 1, पेज 42

4. वसाएलुश शिया जिल्द 12, पेज 128

5. वसाएलुश शिया जिल्द2, पेज 130

6. वसाएलुश शिया जिल्द 12, पेज 134

7. वसाएलुश शिया जिल्द 12, पेज 133

8. उसूले काफ़ी, जिल्द 1, पेज 413

9. उसूल काफ़ी जिल्द 1, पेज 310

10. आलामुल वर्दी, पेज 190

11. अइम्मा और सियासत किताब से लिया गया

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