और दो शिया काफ़िर हो गए

मैं यहां पर किसी वहाबी, बहाई या किसी और मुनहरिफ़ समुदाय की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि यह कहानी शुद्ध रूप से दो पक्के शिया मुसलमानों की है। वह शिया जो कुछ दिन पहले तक एक साथ एक ही महल्ले में रहा करते थे, उन्होंने एक साथ एक ही स्कूल में पढ़ाई की थी और हद...

सैय्यद ताजदार हुसैन ज़ैदी

मैं यहां पर किसी वहाबी, बहाई या किसी और मुनहरिफ़ समुदाय की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि यह कहानी शुद्ध रूप से दो पक्के शिया मुसलमानों की है।

वह शिया जो कुछ दिन पहले तक एक साथ एक ही महल्ले में रहा करते थे, उन्होंने एक साथ एक ही स्कूल में पढ़ाई की थी और हद तो यह है कि दोनों ने एक ही मौलवी के पास एक साथ क़ुरआन की तालीम भी हासिल की थी।

यह दोनों एक ही ख़ुदा को मानते थे, एक ही क़िब्ले की तरफ़ रुख़ करके नमाज़ पढ़ा करते थे, बारह इमामों की इमामत को मानते थे और उनके दुश्मनों का नाम आने पर एक साथ लानत किया करते थे, एक दूसरे के यहां नज़्र नियाज़ में शरीक हुआ करते थे, ईद में गले मिलते थे तो ग़म के समय एक दूसरे के कंधों पर सर रख कर रोया करते थे।

लेकिन फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि यह दोनों काफ़िर हो गए, जब कारण के लिए हम उनके जीवन में देखते हैं तो पता चलता है कि यह दोनों शिया साल के ग्यारह महीने पक्के शिया हैं लेकिन मोहर्रम का महीना आते ही दोनों में दरार आनी शुरू हो जाती है, यहां तक की मोहर्रम की सातवीं और आठवी बल्कि कुछ स्थानों पर तो नवीं मोहर्रम तक यह दोनों शिया मुसलमान रहते हैं लेकिन इधर दस मोहर्रम आती है, और महल्ले का जुलूस चौक पर पहुँचता हैं और जैसे ही वहां पर मातम के लिए क़मा और ज़ंजीर निकल कर आती है तो एक दोस्त क़मा या ज़ंजीर का मातम करने से मना कर देता है, इसको देखते ही दूसरा दोस्त उसको धिक्कार लगाता है कि तुम हुसैन पर ख़ून बहाने से डरते हो, तुम्हारा हश्र भी उन लोगों के साथ होगा जो इमाम हुसैन के क़ातिलों में से हैं, वहीं दूसरा कहता है कि क़मा और ज़ंजीर अज़ादारी का जुज़ नहीं है, यह ख़ुराफ़ात है, इससे हमको दूर रहना चाहिए बात बढ़ते बढ़ते यहां तक आ जाती हैं वह दोनों एक दूसरे को गाली गलौज करने लगते हैं और कितनी आसानी से यह भूल जाते हैं कि अभी कुछ देर पहले तक दोनों ही इमाम हुसैन के अज़ादार थे, दोनों एक ही हुसैन का मातम कर रहे हैं, दोनों एक ही कर्बला की मज़लूमियत पर रो रहे हैं और बात उन दोनों की ज़ात से बढ़कर उलेमा और मराजे पर लानत और मलामत तक आ जाती है

वही उलेमा जिनके बारे में हदीस में कहा गया है कि उलेमा दीन का क़िला हैं, उलेमा की तरफ़ रुजूअ करने के लिए क़ुरआन में हुक्म दिया गया है, लेकिन एक क़मा और ज़ंजीर को मना करने वाले उलेमा को गाली देता है तो दूसरा मज़हब को बदनाम करना वाले इस कार्य की इजाज़त देने वाले उलेमा को गाली देता है, और उस समय यह दोनों भूल जाते हैं कि यही उलेमा हैं जिनकी क़ुरबानियों से हम अपने दीनी आमाल को अंजाम दे पा रहे हैं।

और क्या क़मा और ज़ंजीर जैसा छोटा सा मसला इस हद तक अहमियत का हामिल हो गया कि एक दूसरे पर लानतें की जानें लगें? क्या हम भूल गए कि हम तो उस मज़हब के मानने वाले हैं जिसमें कहा गया है कि मोमिन तो वह है जिसकी ज़बान से दूसरा मोमिन महफ़ूज़ रहे? क्या यही हमारा इस्लाम है क्या यही हमारी शियत है, क्या सारी अज़ादारी क़मा और ज़ंजीर ही है, क्या कोई क़मा और ज़ंजीर करके या न करके काफ़िर हो जाता है, यह तो वही बात हुई के जो भी मुसलमान हिन्दुस्तान में रहकर बंदे मातरम न बोले वह देश द्रोही है, एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि हर इंसान की सोंच और उसका नज़रिया अलग होता है, हम को एक दूसरे की सोंच को समझने और बर्दाश्त करने की ताक़त होनी चाहिए,

जो लोग क़मा और ज़ंजीर का मामत कर रहे हैं उन्हें इस मसले को अपनी अना का मसला न बना कर एक बार सच्चे दिल के साथ देखना और सोंचना चाहिए (बल्कि दुनिया में देखना चाहिए) क्या का उनका यह काम सच में तो दीन के अपमान और मज़हब की बेइज़्ज़ती का कारण तो नहीं बन रहा है?

और जो लोग क़मा और ज़ंजीर का मातम नहीं कर रहे हैं उनको यह सोंचना चाहिए कि क्या हमको यह हक़ हासिल हैं कि हम ऐसा मातम करने वाले अपने ही शिया भाईयों को काफ़िर या दीन से फिरा हुआ बता दें?

हम दोनों के लिए यह सोंचने का मक़ाम है, इस पर एक बार रुक कर ज़रूर सोंचे

और अंत में हमको यह भी देखना चाहिए कि कहीं यह मसला उठा कर हमको आपस में ही लड़ाने की कोशिश तो नहीं की जा रही है, और हमारे वह ज़ाकेरीन जो मिबर पर बैठकर धड़ल्ले से मराजे पर लानत मलामत कर रहे हैं और हम उनकी मजलिसों में चुप चाप बैठ कर सुन रहे हैं बल्कि उनको दाद दे रहे हैं तो हमारा क्या होगा? कहीं हम भी कूफे वालों जैसे तो नहीं हो गए हैं, जिनके दिल तो हुसैन के साथ थे जिन्होंने हज़रत मुसलिम के हाथों पर बैअत तो हुसैन की की थी लेकिन इब्ने ज़ियाद के आते ही उनकी तलवारे हुसैन के क़त्ल के लिए तैयार थी,

हम को एक बार फिर अपने मिंबरों की तरफ़ मुड़ कर देखना होगा कि वहां से क्या सच में वह बयान किया जा रहा है जो हुसैन का मक़सद था या नहीं क्योंकि हर मिंबर पर बैठ जाने वाला आलिम या सही आदमी नहीं होता है और तारीख़ गवाह है कि उमरे आस और क़ाज़ी शुरैह जैसे लोगों ने इमाम के विरुद्ध लोगों को उठाने के लिए इसी मिंबर का सहारा लिया था और आज यह नामनिहाद ज़ाकिर उलेमा जो हम पर इमाम की हुज्जत हैं कि ख़िलाफ़ शियों को खड़ा करने के लिए इसी मिंबर का सहारा ले रहे हैं।

यह भी देखें लो क़मा और ज़ंजीर के बाद अब गोलियों का मताम आ गया

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