इमाम हुसैन (अ.) कौन थे

सभी मुसलमान इस बात पर सहमत हैं कि कर्बला के महान बलिदान ने इस्लाम धर्म को विलुप्त होने से बचा लिया! हालांकि, कुछ मुसलमान इस्लाम की इस व्याख्या से असहमत हैं और कहते हैं की इस्लाम में कलमा के "ला इलाहा ईल-लल्लाह" के सिवा कुछ नहीं है!

पिछले 1400 वर्षों के दौरान, साहित्य की एक अभूतपूर्व राशि  दुनिया की लगभग हर भाषा में इमाम हुसैन (अ) , पर लिखी गयी है, जिसमे  मुख्य रूप से इमाम हुसैन (अस) के सन 61हिजरी में कर्बला में अवर्णनीय बलिदान का विशेष अस्थान और सम्मान है!
सभी मुसलमान इस बात पर सहमत हैं कि कर्बला के  महान बलिदान ने इस्लाम धर्म को विलुप्त होने से बचा लिया! हालांकि, कुछ मुसलमान इस्लाम की इस व्याख्या से असहमत हैं और कहते हैं की इस्लाम में कलमा के "ला इलाहा ईल-लल्लाह" के सिवा कुछ नहीं है! मुसलमानों का एक गुट हजरत मुहम्मद को भी कलमा के एक अनिवार्य अंग मानते हुए कलमा में "मुहम्मद अर रसूल-अल्लाह" को भी पहचाना है! इस्लाम धर्म के मुख्य स्तम्भ (तौहीद, अदल, नबूअत और कियामत) में तो सभी विश्वास रखते हैं परंतू यह समूह पैगम्बर (स अ ) द्वारा बताये, सिखाये और दिखाए  हुए “इमामत” को ना तो पहचानता है और ना ही इसको कलमा का एक अभिन्न अंग मानता है!

मुसलमानों के केवल एक छोटे तबके ने इमामत को पहचाना और वह यह विश्वास करते हैं कि इमामत के प्रत्येक सदस्य  अल्लाह  के प्रतिनीधि और  नियुक्ती  हैं! यह अल्लाह के ज्ञान में था कुछ मुसलमान हजरत अली (अस) को "अमीर उल मोमनीन" के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे! इसलिए अल्लाह ने इन लोगों का परीक्षण करने के लिए और अपनी स्वीकृति पर लोगों को विलाए-अली (अ) की स्वीकृति/अस्वीकृति के अनुसार इनाम/सज़ा देने का फैसला किया था! अल्लाह ने इनके अस्वीकृति के फलसवरूप हजरत मुहम्मद द्वारा यह घोषणा कर दी के इनके (हजरत अली (अ)  के) बिना कोई भी कर्म या पूजा के कृत्यों इनके लिए नहीं जमा किये जायेंगे और ना ही अल्लाह इनके धर्मो कर्मो को स्वीकार करेगा! इसी कारण हजरत मुहम्मद (स ), उनकी पुत्री हजरत फातिमा ज़हरा (स) ने सारी ज़िंदगी अल्लाह के इस फैसले को बचाने में निछावर कर दी! और इन्ही कारणों से उन्हें शहीद भी कर दिया गया!

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम: इमाम हुसैन (अल हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब, यानि अबी तालिब के बेटे अली के बेटे अल हुसैन, 626-680 ) अली अ० के दूसरे बेटे और पैग़म्बर मुहम्मद के नाती थे! आपकी माता का नाम फ़ातिमा जाहरा था। आप अपने माता पिता की द्वितीय सन्तान थे। आप शिया समुदाय के तीसरे इमाम हैं!

आपका जन्म 3 शाबान, सन 4 हिजरी, 8 जनवरी 626 ईस्वी  को पवित्र शहर मदीना, सऊदी अरब) में हुआ था और आपकी शहादत  10 मुहर्रम 61 हिजरी (करबला, इराक) 10 अक्टूबर 680 ई. में वाके हुई!

आप के जन्म के बाद हज़रत पैगम्बर(स.) ने आपका नाम हुसैन रखा, आपके पहले "हुसैन" किसी का भी नाम नहीं था। आपके जनम के पश्चात हजरत जिब्रील (अस) ने अल्लाह के हुक्म से हजरत पैगम्बर (स) को यह सूचना भेजी के आप पर एक महान विपत्ति पड़ेगी, जिसे सुन कर हजरत पैगम्बर (स) रोने लगे थे और कहा था अल्लाह तेरी हत्या करने वाले पर लानत करे।

आपकी मुख्य अपाधियाँ

1. मिस्बाहुल हुदा

2. सैय्यदुश शोहदा

3. अबु अबदुल्लाह

4. सफ़ीनतुन नजात

इतिहासकार मसूदी ने उल्लेख किया है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम छः वर्ष की आयु तक हज़रत पैगम्बर(स) के साथ रहे। तथा इस समय सीमा में  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को सदाचार सिखाने ज्ञान प्रदान करने तथा भोजन कराने  का उत्तरदायित्व स्वंम पैगम्बर (स.) के ऊपर था। पैगम्बर (स) इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अत्यधिक प्रेम करते थे। वह उनका छोटा सा दुखः भी सहन नहीं कर पाते थे।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से प्रेम के सम्बन्ध में पैगम्बर (स) के इस प्रसिद्ध कथन का शिया व सुन्नी दोनो सम्प्रदायों के विद्वानो ने उल्लेख किया है। कि पैगम्बर (स) ने कहा कि हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूँ। अल्लाह तू उससे प्रेम कर जो हुसैन से प्रेम करे।

हज़रत पैगम्बर (स) के स्वर्गवास के बाद हज़रत  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम तीस (30)  वर्षों तक अपने पिता हज़रत इमामइमाम अली अलैहिस्सलाम के साथ रहे। और सम्स्त घटनाओं व विपत्तियों में अपने पिता का हर प्रकार से सहयोग करते रहे।

हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद दस वर्षों तक अपने बड़े भाई इमाम हसन के साथ रहे। तथा सन् पचास (50) हिजरी में उनकी शहादत के पश्चात दस वर्षों तक घटित होने वाली घटनाओं का अवलोकन करते हुए मुआविया का विरोध करते रहे । जब सन् साठ (60) हिजरी में मुआविया का देहान्त हो गय, व उसके बेटे यज़ीद ने गद्दी पर बैठने के बाद हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बैअत (आधीनता स्वीकार करना) करने के लिए कहा, तो आपने बैअत करने से मना कर दिया।और इस्लाम की रक्षा हेतु वीरता पूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गये।

करबला की लड़ाई

करबला इराक का एक प्रमुख शहर है । करबला, इराक की राजधानी बगदाद से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा कस्बा है! यह क्षेत्र सीरियाई मरुस्थल के कोने में स्थित है । करबला शिया समुदाय में मक्का के बाद दूसरी सबसे प्रमुख जगह है । कई मुसलमान अपने मक्का की यात्रा के बाद करबला भी जाते हैं । इस स्थान पर इमाम हुसैन का मक़बरा भी है जहाँ सुनहले रंग की गुम्बद बहुत आकर्षक है । इसे 1801 में कुछ अधर्मी लोगो ने नष्ट भी किया था पर फ़ारस (ईरान) के लोगों द्वारा यह फ़िर से बनाया गया।  

यहा पर इमाम हुसैन ने अपने नाना मुहम्मद (स) के सिद्यांतों की रक्षा के लिए बहुत बड़ा बलिदान दिया था । इस स्थान पर आपको और आपके लगभग पूरे परिवार और अनुयायियों को यजिद नामक व्यक्ति के आदेश पर सन् 680 (हिजरी 58) में शहीद किया गया था जो उस समय शासन करता था और इस्लाम धर्म में अपने अनुसार बुराईयाँ जेसे शराबखोरि,अय्याशी, वगरह लाना चाह्ता था।

करबला की लडा़ई मानव इतिहास कि एक बहुत ही अजीब घटना है। यह सिर्फ एक लडा़ई ही नही बल्कि जिन्दगी के सभी पहलुओ की मार्ग दर्शक भी है। इस लडा़ई की बुनियाद तो हज़रत मुहम्मद मुस्त्फा़ (स) के देहान्त के  के तुरंत बाद  रखी जा चुकी थी। इमाम अली (अ) का खलीफा बनना कुछ अधर्मी लोगो को पसंद नहीं था तो कई लडा़ईयाँ हुईं अली (अ) को शहीद कर दिया गया, तो उनके पश्चात इमाम हसन (अ) खलीफा बने उनको भी शहीद कर दिया गया।

यहाँ ये बताना आवश्यक है कि, इमाम हसन को किसने और क्यों शहीद किया? असल मे अली अ० के समय मे सिफ्फीन नामक लडा़ई मे माविया ने मुँह की खाई वो खलीफा बनना चाहता था प‍र न बन सका। वो सीरिया का गवर्नर पिछ्ले खलिफाओं के कारण बना था अब वो अपनी एक बडी़ सेना तैयार कर रहा था जो इस्लाम के नही वरन उसके अपने लिये थी, नही तो उस्मान के क्त्ल के वक्त खलीफा कि मदद के लिये हुक्म के बावजूद क्यों नही भेजी गई? अब उसने वही सवाल इमाम हसन के सामने रखा या तो युद्ध या फिर अधीनता। इमाम हसन ने अधीनता स्वीकार नही की परन्तु वो मुसलमानो का खून भी नहीं बहाना चाहते थे इस कारण वो युद्ध से दूर रहे अब माविया भी किसी भी तरह सत्ता चाहता था तो इमाम हसन से सन्धि करने पर मजबूर हो गया इमाम हसन ने अपनी शर्तो पर उसको सि‍र्फ सत्ता सोंपी इन शर्तो मे से कुछ ये हैं: -

1. वो सिर्फ सत्ता के कामो तक सीमित रहेगा धर्म मे कोई हस्तक्षेप नही कर सकेगा।

2. वो अपने जीवन तक ही सत्ता मे रहेगा म‍रने से पहले किसी को उत्तराधिकारी न बना सकेगा।

3. उसके म्ररने के बाद इमाम हसन खलिफा़ होगे यदि इमाम हसन कि मृत्यु हो जाये तो इमाम हुसैन को खलिफा माना जायगा।

4. वो सिर्फ इस्लाम के कानूनों का पालन करेगा।

 इस प्रकार की शर्तो के द्वारा वो सिर्फ नाम मात्र का शासक रह गया, उसने अपने इस संधि को अधिक महत्व नहीं दिया इस कारण करब्ला नामक स्थान मे एक धर्म युध हुआ था जो मुहम्म्द (स) के नाती तथा अधर्मी यजीद (पुत्र माविया पुत्र अबुसुफियान पुत्र उमेय्या)के बीच हुआ जिसमे वास्त्व मे जीत इमाम हुसेन अ० की हुई प‍र जाहिरी जीत यजीद कि हुई क्योकि इमाम हुसेन अ० को व उन्के सभी साथीयो को शहीद कर दिया गया था उन्के सिर्फ् एक पुत्र अली (अ) (ज़ैनुल आबेदीन) जो कि बिमारी के कारन युद्ध मे भाग न ले सके थे बचे आज यजीद नाम इतना जहन से गिर चुका हे कोई मुसलमान् अपने बेटे का नाम यजीद नही रखता जबकी दुनिया मे ह्सन व हुसैन नामक अरबो मुस्ल्मान है यजीद कि नस्लो का कुछ पता नही पर इमाम हुसैन कि औलादे जो सादात कहलाती हे जो इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) से चली दुनिया भ‍र मे फैले हैं।

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