शियों के लिए इमाम रज़ा (अ.) का संदेश

हे अब्दुल अज़ीम मेरी तरफ़ से मेरे दोस्तों के यह संदेश देना और उनसे कहना कि शैतान को स्वंय पर नियंत्रण ना करने दें और उनको आदेश देना कि बोलने और अमानत में सच्चाई रखें, और जो चीज़ उनके काम की ना हो उसमें ख़ामोश रहें, आक्रमकता को छोड़ दें, एक दूसरे के क़रीब

हे अब्दुल अज़ीम मेरी तरफ़ से मेरे दोस्तों के यह संदेश देना और उनसे कहना कि शैतान को स्वंय पर नियंत्रण ना करने दें और उनको आदेश देना कि बोलने और अमानत में सच्चाई रखें, और जो चीज़ उनके काम की ना हो उसमें ख़ामोश रहें, आक्रमकता को छोड़ दें, एक दूसरे के क़रीब आएं और एक दूसरे से भेंट करें और यह मुझ से क़रीब होने का माध्यम हैं, और एक दूसरे से लड़ने में अपने आप को व्यस्त ना करें, क्योंकि मैं ने स्वंय से क़सम खाई हैं कि जो भी ऐसा करेगा और मेरे दोस्तों में से किसी को क्रोधित करेगा उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करूँगा कि इस संसार में उसको कठिन अज़ाब दे और आख़ेरत में वह हानि उठाने वालों में से हो। और उन (शियो) को बताना कि ईश्वर तुम में से अच्छे कार्य करने वाले को क्षमा कर देगा और पापियों के माफ़ कर देगा सिवाए उन लोगों के जिन्होंने ख़ुदा से शिर्क गिया होगा या मेरे दोस्तों में से किसी को सताया होगा या उसके विरुद्ध दिल में कीना रखे होगा, और अगर ऐसा करेगा तो ख़ुदा उसे उस समय तक क्षमा नहीं करेगा जब तक वह कीना उसके दिल से निकल ना जाए। अगर निकल गया (तो अच्छा है) अन्यथा उसके दिल से ईमान निकल जाएगा और मेरी विलायत से बाहर हो जाएगा और उसको हमारी विलायत से कोई लाभ नहीं होगा और मैं ऐसे बुरे अंजाम से ख़ुदा से पनाह मांगता हूँ।

«يَا عَبْدَالْعَظِيمِ أَبْلِغْ عَنِّي أَوْلِيَائِيَ السَّلَامَ وَ قُلْ لَهُمْ أَنْ لَایَجْعَلُوا لِلشَّيْطَانِ عَلَى أَنْفُسِهِمْ سَبِيلًا وَ مُرْهُمْ بِالصِّدْقِ فِي الْحَدِيثِ وَ أَدَاءِ الْأَمَانَه..ِ وَ مُرْهُمْ بِالسُّكُوتِ وَ تَرْكِ الْجِدَالِ فِيمَا لَايَعْنِيهِمْ وَ إِقْبَالِ بَعْضِهِمْ عَلَى بَعْضٍ وَ الْمُزَاوَره..ِ فَإِنَّ ذَلِكَ قُرْبَه..ٌ إِلَيَّ وَلَايَشْغَلُوا أَنْفُسَهُمْ بِتَمْزِيقِ بَعْضِهِمْ بَعْضاً فَإِنِّي آلَيْتُ عَلَى نَفْسِي أَنَّهُ مَنْ فَعَلَ ذَلِكَ وَ أسْخَطَ وَلِيّاً مِنْ أَوْلِيَائِي دَعَوْتُ اللهَ لِيُعَذِّبَهُ فِي الدُّنْيَا أَشَدَّ الْعَذَابِ وَ كَانَ فِي الْآخِرَه..ِ مِنَ الْخَاسِرِينَ وَ عَرِّفْهُمْ أَنَّ اللهَ قَدْ غَفَرَ لِمُحْسِنِهِمْ وَ تَجَاوَزَ عَنْ مُسِيئِهِمْ إِلَّا مَنْ أَشْرَكَ بِي أَوْ آذَى وَلِيّاً مِنْ أَوْلِيَائِي أَوْ أَضْمَرَ لَهُ سُوءاً فَإِنَّ اللهَ لَا يَغْفِرُ لَهُ حَتَّى يَرْجِعَ عَنْهُ فَإِنْ رَجَعَ عَنْهُ وَإِلَّا نُزِعَ رُوحُ الْإِيمَانِ عَنْ قَلْبِهِ وَ خَرَجَ عَنْ وَلَايَتِي وَ لَمْ يَكُنْ لَهُ نُصِيبٌ فِي وَلَايَتِنَا وَ أَعُوذُ بِاللهِ مِنْ ذَلِكَ»

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