हज़रत ज़ैनब (स) के जीवन के कुछ पहलू

इस में कोई शक नहीं है कि इमाम हुसैन (अ) के सारे सहाबी और बनी हाशिम इस शहादत के मर्तबे में और पड़ने वाली मुसीबतों में हुसैन (अ) के साथ बराबर के शरीक थे। लेकिन इमाम और दूसरों में फ़र्क़ यह है कि हुसैन (अ) सदाए हक़ बुलंद करने वाले थे जबकि दूसरे इमाम हुसैन

इंसान जब दुनिया में आता है तो उसके पास न इल्म होता है और न तजुर्बा। जैसे-जैसे ज़िन्दगी की कठिनाईयों से गुज़रता है इल्म व तजुर्बे की वजह से उसके अंदर कमाल पैदा हो जाता है। वैसे तो इंसान के नेचर में यह बात पाई जाती है कि वह कमाल चाहता है।

इस लिए वह हमेशा इस कोशिश में रहता है कि क्या करे जिस से उसके अंदर बुलंदी और कमाल पैदा हो जाए। क़ुरआन ने इंसान की इस ख़्वाहिश को सही रास्ते पर लगाने के लिए पैग़म्बरे अकरम (स) को आईडियल बनाया है, "तुम्हारे लिए रसूल (स) की ज़िन्दगी में बेहतरीन नमून-ए-अमल हैं।" (सूरए अहज़ाब, आयत 21)

यानी ख़ुदा यह बताना चाहता है कि देखो! अगर अपनी भलाई चाहते हो तो तुम्हें रसूले अकरम (स) को अपना आईडियल बनाना होगा, उनके बताए हुए रास्ते पर चलना पड़ेगा, उनकी इताअत करनी होगी क्यों कि वही हैं जिसके अंदर सारे कमाल और अच्छाईयाँ जमा हो गई हैं और उन्हीं की ज़ात हर तरह से पाक है। मगर आप जहाँ पूरी इंसानियत के लिए आईडियल हैं वहीं आप अपनी बेटी हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) को दुनिया की औरतों की सरदार का ख़िताब देकर अपने साथ-साथ औरतों के लिए भी एक औरत को आईडियल क़रार देते हैं। उधर हज़रत ज़हरा (स) ने एक ऐसी बेटी की परवरिश की जो अपने बाप ही की नहीं बल्कि पूरे ख़ानदान की ज़ीनत नज़र आती है। यक़ीनन जनाबे ज़ैनब (स) अपनी माँ की हू-बहू तस्वीर हैं। इसलिए आप भी दुनिया की औरतों के लिए एक बहतरीन नमून-ए-अमल हैं।

हज़रत ज़ैनब इस्लामी इतिहास की वह महान ख़ातून हैं जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। आपने हज़रत अली (अ) और जनाबे ज़हरा (स) के बाद उन की सीरत पर अमल करते हुए उनके मक़सदों को एक नई ज़िन्दगी प्रदान की। दीन और दीन के वारिसों की सुरक्षा के लिए हर मुश्किल को बर्दाश्त किया। आपके ईसार व क़ुर्बानी की शुरुआत कर्बला से हुई है। इमाम  हुसैन (अ) ने जिस महान मक़सद के लिए क़ुरबानी पेश की थी आपने शहादत के बाद उस मक़सद के साथ वक़्त के इमाम की भी सुरक्षा की। अगर ज़ैनब (स) न होतीं तो शायद मैदाने कर्बला में चिराग़े हिदायत बुझ जाता। आप हर तरह से हज़रत ज़हरा (स) की हू-बहू तस्वीर थीं।

आप जब तक ख़ामोश थीं तो जनाबे ज़हरा (स) की मिसाल रहीं और जब आप ने ज़बान ख़ोली तो हज़रत अली (अ) की तस्वीर बन गईं। हमारी माँ बहनों के लिए आप एक बहतरीन आईडियल हैं क्यों कि आप ने इस्मत की गोद में परवरिश पाई है। ऐसी ख़ातून कि जिस का नाना मासूम, जिसका बाबा और माँ मासूम, जिसके दो भाई मासूम, यह शरफ़ शायद ही दुनिया की किसी औरत को मिला हो।

सच! जनाबे ज़ैनब (स) ने ऐसा किरदार पेश किया है जिस से आप पूरी इस्लामी हिस्ट्री के लिए आईडियल बन गई हैं। बहादुरी ऐसी कि जिसने इस्लाम के दुश्मनों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया, तक़रीर की ताक़त और गिरया ऐसा कि जिसने मुनाफ़िक़ों को ज़लील और रुसवा कर डाला। आपके ईमान व इरफ़ान, ईसार, बहादुरी और फ़िदाकारी को कर्बला में आसानी से देख जा सकता है।

60 हिजरी का इस्लाम वह इस्लाम था जो हक़ीक़तों से कोसों दूर था, जिसमें बिदअतों का बोलबाला था, इलाही अहकाम को पामाल किया जा रहा था, इस्लाम के हाकिम धोखे और अपनी ताक़त के बल पर लोगों को यह समझाने पर तुले थे कि देखो यही हक़ीक़ी इस्लाम है। और सीधी-सादी बल्कि नासमझी की शिकार अवाम भी उन के झांसे में आकर उनको इस्लाम और अवाम का हक़ीक़ी दर्दमंद समझने लगी थी। ऐसे माहोल में दीने मोहम्मद (स) के हक़ीक़ी वारिस ने कश्ती-ए-निजात बनकर सदाए हक़ बुलंद की और अपने भरे घर को ख़ुदा की राह में निछावर करके दीने इस्लाम को मौत के मुंह से निकाल लिया जिस से इस्लाम को एक नई हयात मिली।

यज़ीदी भवर में डूबती इस्लाम की कश्ती को हुसैन (अ) और आप के सहाबियों ने बचा तो लिया लेकिन उसे साहिल पर लगाने के लिए ज़ैनब (स) की ज़रूरत थी। ज़ैनब (स) ने ज़िन्दगी के हर मोड़ पर हुसैन (अ) का साथ दिया। हमेशा साए की तरह उन के साथ-साथ रहीं।

वैसे तो जनाबे ज़ैनब (स) बहुत सी ख़ुसूसियतों की मालिक थीं लेकिन आप की कुछ ख़ुसूसियतों को यूँ बयान किया जा सकता है।

ज़ैनबः शरीकतुल हुसैन (अ)

इसमें कोई शक नहीं है कि अली (अ) की बेटी ज़ैनब (स) शरीकतुल हुसैन (अ) हैं। इमामे अली (अ) की दूसरी बेटी के होते हुए सिर्फ़ जनाबे ज़ैनब को यह शरफ़ क्यों मिला? इस पर बात करना ज़रूरी है। ज़ैनब (स) शरीकतुल हुसैन (अ) कैसे हैं। वह कौन सी चीज़ है जिस में जनाबे ज़ैनब (स) हुसैन (अ) की शरीक हैं। क्या हुसैन (अ) के सफ़र में शरीक होने की वजह से शरीकतुल हुसैन (अ) हैं? अगर ऐसा है तो और भी औरतें इमाम हुसैन (अ) की हमसफ़र थीं जिन में हज़रत अली (अ) की दूसरी बेटियाँ भी शामिल हैं। इस से पता चलता है कि इसकी वजह कुछ और है।

कुछ लोगों का कहना है कि जनाबे ज़ैनब (स) के शरीकतुल हुसैन (अ) होने की एक वजह यह है कि दोनों भाई-बहन अली व फ़ातिमा ज़हरा (स) की औलाद थे। लेकिन इस में तो जनाबे उम्मे कुलसूम (स) भी हज़रत ज़ैनब (स) के बराबर थीं।

तो फिर क्या ऐसा इस लिए है कि हुसैन (अ) पर पड़ने वाली मुसीबतों में जनाबे ज़ैनब (स) इमाम हुसैन (अ) के साथ बराबर की शरीक थीं? लेकिन इस बारे में भी दूसरी सारी औरतें भी हुसैन (अ) की मुसीबतों में बराबर की शरीक थीं।

सिर्फ़ जनाबे ज़ैनब (स) को शरीकतुल हुसैन (अ) का ख़िताब मिलना इस बात की तरफ़ इशारा है कि कोई न कोई ख़ास बात जनाबे ज़ैनब (स) में ज़रूर थी। आइए! देखते हैं कि वह ख़ास बात क्या थी।

इस में कोई शक नहीं है कि इमाम हुसैन (अ) के सारे सहाबी और बनी हाशिम इस शहादत के मर्तबे में और पड़ने वाली मुसीबतों में हुसैन (अ) के साथ बराबर के शरीक थे। लेकिन इमाम और दूसरों में फ़र्क़ यह है कि हुसैन (अ) सदाए हक़ बुलंद करने वाले थे जबकि दूसरे इमाम हुसैन (अ) की आवाज़ पर लब्बैक कहने वाले थे। कर्बला के क़ैदियों में वही इफ़्तेख़ार जनाबे ज़ैनब (स) को हासिल है, जो दूसरे शहीदों में इमाम हुसैन (अ) को हासिल था। यही वह ख़ास वजह है जिसकी वजह से जनाबे ज़ैनब को शरीकतुल हुसैन कहा जाता है। (क़यामे इमाम हुसैन, अस्बाब व नताएज, 3)

इबादत और राज़ो नियाज़

इस अज़ीम ख़ातून की एक ख़ासियत यह भी थी कि आप ख़ुदा की बारगाह में दुआओं, मुनाजातों और बन्दगी में भी अपनी मिसाल आप थीं। रिवायतों में मिलता है कि आप शबे आशूर और शामे ग़रीबाँ में भी नमाज़े शब पढ़ना नहीं भूली थीं। आप पूरी रात इबादत और तिलावते क़ुरआने मजीद में बसर करती थीं। इमाम ज़ैनुल आबिदीन (अ) फ़रमाते हैं किः- "जब हम लोगों को कूफ़े से शाम ले जाया जा रहा था, तब भी इतनी मुसीबतों के बावजूद फूफी ज़ैनब (स) ने नमाज़े शब को कभी नहीं छोड़ा।"

जहाँ मौक़ा मिलता था दुआओं और परवरदिगार की इबादत में मशग़ूल हो जाती थीं। इमाम हुसैन (अ) आख़िरी विदा लेते वक़्त अपनी प्यारी बहन ज़ैनब (स) से कह रहे थे, "ऐ बहन! मुझे नमाज़े शब में न भूलना।"

एक मासूम के यह अलफ़ाज़ जनाबे ज़ैनब (स) की बन्दगी के मर्तबे को बता रहे हैं जिसका तसव्वुर भी आम इंसान के बस में नहीं है। यही वह ख़ुसूसियतें थीं जिनकी वजह से आपको सानी-ए-ज़हरा (स) भी कहा जाने लगा था।

शुजाअत और बहादुरी

जनाबे ज़ैनब (स) को शुजाअत अपने बाबा अली (अ) और माँ जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स) से विरसे में मिली थी। जब इमामे सज्जा (अ) को इब्ने ज़ियाद के दरबार में लाया गया तो इब्ने ज़ियाद आप की हक़ पसंद गुफ़्तगू सुनकर आग बगोला हो गया और फ़ौरन जल्लाद को इमाम के क़त्ल का हुक्म दे दिया। इब्ने ज़ियाद का हुक्म सुन कर जनाबे ज़ैनब (स) बेताब होकर भतीजे से लिपट गईं और कहने लगीं, "ऐ इब्ने ज़ियाद बस कर। बहुत ख़ून बहा चुका। क्या अब तू हमारे ख़ून से सैराब नहीं हुआ। क़सम ख़ुदा की! मैं इससे जुदा नहीं हो सकती। अगर इसको क़त्ल करना चाहता हो तो पहले मुझे क़त्ल कर।"

बिन्ते अली ने मजलिस की बुनियाद डाल कर,

हर आने वाली नस्ल पे ऐलान कर दिया,

अब्बास की बहन की शुजाअत तो देखिये,

क़ातिल के घर में जीत का ऐलान कर दिया

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